Last modified on 23 फ़रवरी 2009, at 20:00

आभार / येव्गेनी येव्तुशेंको


अपने पुत्र की चारपाई का
कम्बल थोड़ा उठाकर
उसने कहा- सो गया है
और बुझा दी बत्ती छत पर लगी
फिर गाउन उसका गिर गया
धीमे से कुर्सी पर

हम दोनों ने
कोई बात नहीं की प्रेम की
हमने पूछताछ नहीं की
कुशल-क्षेम की
वह फुसफुसाई
बोली थोड़ा-सा तुतलाकर
'र' ध्वनि को
अपने दाँतों के बीच फँसाकर

क्या तुम्हें पता है
मैं भूल चुकी थी जीवन अपना
अब जैसे यह सब लगता है सपना
मैं ज्यों पुरूष-सी हो गई थी
अपने घाघरे में
जुती हुई घोड़ी थी पाखरे में
और आज अचानक
फिर से मैं स्त्री हो गई

उसके प्रति
मुझे व्यक्त करना था आभार
वह जैसे मेरा ऋण था
उसके असुरक्षित तन में
मैंने ढूँढा था प्यार
पर किसी विजयी भेड़िये की तरह मैं
अब पुरुष पहले से भिन्न था

लेकिन आभारी हो रही थी वह
फुसफुसा रही थी मुझसे सटकर
और रो रही थी वह
मेरे लिए शर्म से अड़ जाने को
यह काफ़ी था

मैं चाहता था उसे घेरना
अपनी कविता की बाड़ से
वह कभी घबराए
पीली पड़ जाए
तो लाल कभी हो प्यार से
वह स्त्री है
फिर भी मेरे प्रति व्यक्त करे आभार
मैं पुरुष हू`ं
अतः उससे मेरा कोमल हो व्यवहार
उसके प्रति जन्म गया था अब मेरे मन में प्यार

आख़िर दुनिया में कैसे हुआ यह
कि भूल गए हम
स्त्री का अर्थ पुराना
उसे फेंक दिया
इतना पीछे, इतना नीचे...
कि पुरुष के बराबर है वह
यह माना

ज़रा देखो समाज में
जीवन अब कितना बदल गया है
शताब्दियों से चली आ रही
परम्परा को भी वह छल गया है
अब पुरुष बन गए
रूप बदल कर स्त्री जैसे
और स्त्री ज्यों पुरुष हो गई
कुछ लगे ऎसे

हे भगवान!
कितने झुक गए हैं स्त्री के कन्धे
मेरी उंगलियाँ धँस जाती हैं
शरीर में उसके भूखे, नंगे
और आँखें उस अनजाने लिंग की
चमक उठीं
वह स्त्री है अंतत:
यह जानकर धमक उठीं

फिर उन अंधमुंदी आँखों में
कोहरा-सा छाया
सुर्ख़ अलाव की तेज़ अगन का
भभका आया
हे राम मेरे! औरत को चाहिए
कितना कम
बस इतना ही
कि उसे औरत माने हम

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय