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वसंतागम / आलोक श्रीवास्तव-२

 

आज फिर मंजरियां खिली होंगी
हौले पांव रखता वसंत आया होगा
वह धरती जहां से कालिदास का मेघ गुजरा था
पलाश से लद गयी होगी

एक घर के आंगन में बहुत सबेरे
एक वधू तुलसी पर जल चढ़ा रही होगी
वह थी मेरे बचपन की प्रिया
उसी के केशों को सुवासित फूलों से ढंक देने की
कल्पनायें उठा करतीं थीं उन दिनों में
उसी की आंखों में नील जलाशय और
कमल-वृंत दिखते थे
मन तब सिर्फ देह का गान जानता था
पर वह भी कितना सुकुमार, भोला और मासूम
कितना अक्षत
कितना काव्योपम !

तृष्णा नहीं, जरूरत नहीं
अनुभूति की एक और दुनिया थी वह
चांद के गीत
फूल की लोरी, तारों की हंसी
बादलॊं को छू कर आती हवा
सब शरीक थे लगाव के उस खेल में

चैत की उदास दोपहरी
और शिशिर का पत्र-कम्पन
बहुत सारी यादों के बीच
अब भी कहीं दबा-छुपा पड़ा अहै
किसी किसी निद्राहीन रात में
उन्हीं तारों की परछाईं दिखती है
अंधेरे में उन्हीं फूलों का रंग
सहसा हो उठता है भासमान

आज इस दुख का कोई रूप-रंग नहीं है
कोई नाम नहीं है
कभी कभी की इस गहरी टीस का
एक कामना है -
हजार ऋतुओं और सैकड़ों नदियों की दूरी पर
मंजरियों का कुसुमन
वसंत के हौले पांव
पलाश से लदी धरती
दुख न जगाते हों जल चढ़ाती वधू के मन में
सुनते हों तारे उसकी प्रार्थनायें
और पेंड़ मनौतियां
कभी कभी याद आता हो प्रेम भी
पर आंसू बन कर नहीं

किसी दिन उम्र के किसी भी पड़ाव पर
कभी मिलना हुआ
तो नहीं कह पाउंगा अपना दुख
सिमोन के विचार और एंगेल्स के किताब की बातें तो दूर हैं

पर समय इतनी शक्ति देना कि
धरती के रंग-रूप, ऋतुओं का गान
और मंजरियों की महक
किसी दिन भूल न जाऊं !