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लोकल-बस / रेखा

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आत्मीयता के
अंतरंग मोड़ पर
आ रुकती है
हमारे बीच खचाखच भरी
लोकल बस

शाहाजहाँ की बाँहों में
बर्फ़ हो जाती है मुमताज़
यह कहे बिना
कि मेरी कब्र पर
ताजमहल बनवाना

क्या तुम डलवा सकते हो
एक छप्पर
उस लैम्पपोस्ट की बगल में
जहाँ जलती धूप में
बस का इंतज़ार रहता है

आज़ादी हर सुबह
गौरैया-सी फुदकती है
हमारी खिड़की के बाहर
फिर उड़ जाती है
उन ऊँची इमारतों की ओर
चुन-चुनकर मेरी आँखों से
तीन पीढ़ी पहले की
हर औरत के सपने
उसी गौरेया की तलाश में
अहसासों के पहिये पर
हो जाती हूँ सवार

हर सुबह बीनती है लोकल बस
उस चौराहे से मुझे
मेरी पूरी महक के साथ
हर शाम फेंक देती है वहीं
बहुत गहरी उबक के साथ

तुम्हारे हर स्पर्श से
छुई-मुई लाजवन्ती होने का अभिनय
क्या अब भी ज़रूरी है?

तुम्हें अब भी भली लगती है
समर्पण में झुकी आँखों में
हिरणी की चकित चितवन
गिरवी रख आई हूँ जिसे
तुम्हारे मसनवी दादा के
दीवाने-खास में सजे
सुन्दर तैल-चित्र में
उन खानदानी सौगातों की तरह
जो नीलामी की इंतज़ार में हैं

हर सुबह
खिड़की के बाहर
फुदकती है जो गौरैया
न जाने शाम को
क्यों नहीं लौटती मेरे संग घर
साँप के केंचुल की तरह
उतार कर दरवाज़े से बाहर
रख देती हूँ
अपना सार्वजनिक चेहरा
बिछ जाता है सारा वजूद
बिछौने की तरह
फिर क्यों चुभते रहते हैं
ज़िंदगी के तमाम कसैले स्पर्श
जो लोकल बस
हर रोज़ मुझे देती है