Last modified on 28 फ़रवरी 2009, at 10:03

पागलों की बस्ती / सौरभ

प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:03, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> मदहोशी की ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मदहोशी की बस्ती में
होश की बात न कर
बात कर साकी की मयखाने की
अन्धेरों में भटके हैं ये बरसों
यहाँ रोशनी का ज़िक्र न कर
मत कर बातें यहाँ मशालों की
मयखाने में बैठ
कुछ पीने-पिलाने का दौर बढ़ा
पागल, मत कर होश की बातें
पागलों की बस्ती में
सज़ाए काला-पानी पाएगा
चढ़ा जा एक छोटा सा जाम
हुजूम में तू भी झूम जा ।