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दहलीज़ / रेखा

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तुम आए हो दोस्त
तो रुको देहरी पर
मैं अभी पिछले दरवाज़े से
बसंत को विदा कर आयी हूँ

थके हो
बैठ लो
यहीं कहीं
सुस्ता लो

मेरे आँगन में
कहीं भी इतनी हरियाली नहीं
कि हम
दो पल बेठकर
यादों को पी सकें
घूँट
घूँट
पत्ता
पत्ता
झर चुकी हूँ उसकी झोली मे
बूँद
बूँद
उसके प्यासे हलक में उतर चुकी हूँ
जिसे तुमने देखा है
मेरे दरवाज़े से
लौटते

तुम्हारे स्वागत के लिए
मैं चाँदनी नहाई
ओस धुली
इन्द्रधनुष लपेटे नहीं आई
माँग में तारे भी नहीं सजाए

क्या तुम डर आओगे
देखकर
मेरे चेहरे में उलझे
मकड़जाल

रस-कलश लिए
तुम्हारे आने का शगुन नहीं मनाया
तुम देख लो स्वयं
आँगन में बिखरे ठीकरे
और नाली में बहता पानी

चन्दन देह का सम्मोहन
टूट जाएगा दोस्त
देखोगे जब
अदृश्य काल के नीले सर्पदंश

रोक लो साँस
क्या रजनीगंधा के झोंकों में
सोये साँपों की फुफकार
नहीं सुनी तुमने

यहीं रुक जाओ दोस्त
दहलीज़ के इस पार
उस पार
सुलझा सकते हैं हम
समय के मकड़जाल
सहला सकते हैं काल के
नीले सर्पदंश
देख सकते हैं
ढलता हुआ सूरज

यहीं रुको
जो भी जायेगा भीतर
लौटना होगा उसे
पिछले दरवाजे से

तुम्हारा दबे पाँव आना
और चुपके से लौट जाना
मुझे नहीं स्वीकार

1983