ओ सहयात्री
मैं तुम्हें लिये चलती हूँ
समय के वक्ष पर
मेरी उम्र
पड़ी है तुम्हारे हाथों में
काँच के फूलदान -सी
मैंने तुमसे पूछा अक्सर:
तुम मेरे कौन हो?
तुमने हर बार दोहराकर मुझे ही
अलग करना चाहा मुझे
अपने से
ताकि तुम काल पुरुष बन
बदलते रहो चेहरे
मेरी ही आँखों के सामने
और तुम्हारी छाया में बैठकर
मैं कल्पना भी कर सकूँ
तो तुम्हारी ही
मैंने सींचा है तुम्हारा
इतिहास-वृक्ष
पर हर बार
मैं ही मरी हूँ
तुम्हारी कहानियों में
तुमने इतना कुछ क्यों चाहा मुझसे
ओ सहयात्री
इसलिए
कि मैं मिलूँ तुम्हें
हर मोड- पर
लिये तुम्हारी परिभाषाएँ
गर्भ में
और तुम्हारे सँग रहकर भी
वंचित रहूँ
तुम्हारे ज्ञान से
ताकि चलते रहो
प्रलय तक
मेरे ही घुटनों पर
हर पड़ाव पर मुझे
किसी और के लिए छोड़