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प्रेम उड़ / राजुला शाह

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तुम
रात भर बोलते रहे
उसके बारे में
-प्रेम के।
कमरे में
बाकी सब सो गये थे।
मुझे राजदार बना
न जाने क्यों
अँधेरे में
तुम बोलते रहे
लगातार।
कभी-कभी
गड़बड़ा गयी मैं
हम दोनों में कौन बोला
बात तुम्हारी थी
तुम जो घनघोर प्रेम में थे
यूँ कहीं
सबकी थी
मेरी भी।
तुमने पूछा
प्रेम ने क्यों
आखिरी बूँद भी
निचोड़ ली थी
तुमसे
जैसे प्रेम
धोबी हो
रगड़ता
मसलता
पछीटता
और अन्तर
तार पर फड़फड़ाता
क्यों छूट गया था
आँगन में...
मेरी नींद-भर
फड़फडा़ता रहा फिर
रात के आँगन में।

सुबह
खिड़की के पार
रात को दोहराती-
कपड़े समेटती भाभी।

निंदियाती मेरी तर्जनी में
फुसफुसाता
एक पुराना स्वर-
चिड़िया उड़
हाथी उड़
चींटी उड़
कपड़ा उड़
प्रेम उड़...