Last modified on 3 अप्रैल 2009, at 02:09

सहेलियाँ / राग तेलंग

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:09, 3 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राग तेलंग }} <Poem> सहेलियाँ बिछुड़ने के लिए ही मिल...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


सहेलियाँ बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं
जितना भी वक़्त गुज़रता है सहेलियों के साथ
दर्ज हो जाता है परत दर परत और
मिलता है एक लंबे अर्से के बाद फॉसिल की शक्ल में
पुरुषों की क्रूर दुनिया की टनों भारी चट्टानों के बीच दबा हुआ

सहेलियाँ पंखुड़ियों की तरह रखी गई थीं
दिल की किताब के सफों के बीच
जिन्हें खोला जाता नीम अकेले में बरसों-बरस बाद तो
महक उठता था मन उन दिनों की स्मृतियों में जाकर और
तब बरबस ही भीग आतीं आंखें इस सत्य को जानते कि
सहेलियां बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं

सहेलियों के साथ खेले गए
फुगड़ी के खेल,झूलों की पींगें, रंगोली में साथ रहकर भरे गए रंग
सब जैसे समाहित हो गए
विदा के कर्मकांडों के दौरान दी गई आहुतियों के तौर पर

फौलाद का दिल चाहिए
एक औरत को समझने के लिए और पिफर
उसकी पनीली आंखों में यह लिखा हुआ पढ़ने के लिए कि
सहेलियां बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं

वह जो अपनी बेटी को भरपूर निगाह से देख रही है
वह जो सिखा रही है
अपनी लाड़ली को खाना पकाना
कमसिन उम्र में धधकते चूल्हे के करीब
वह जो बिटिया के लंबे बालों पर
फेर रही है स्नेह से हाथ कंघी करते हुए
वे सब कहना चाहती हैं, समझाना चाहती हैं
उसके औरत बनने के ठीक पहले
पर कुछ बात है इस बात में जो कहा जाता नहीं उनसे कि
सहेलियाँ बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं ।