Last modified on 3 अप्रैल 2009, at 13:32

छंद / राधावल्लभ त्रिपाठी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:32, 3 अप्रैल 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राधावल्लभ त्रिपाठी |संग्रह=सम्प्लवः / राधावल्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

छंद के बंध टूट जाने पर
यति और लय के भंग हो जाने पर
जो कुछ जो कुछ रचा गया
वह भी वह भी हुआ छंद ही।

उघड़े रस्ते नए-नए
पद्धतियाँ दिखीं और भी कई-कई
संग-संग
चल पड़े छंद
लंबी यात्रा में पाथेय बने।

जो सत्त्व छंद में ढाला था
मन के रजःपटल को
दूर वही करता आया है
वाणी की धार कुल्हाड़ी की
देती रही विदार
तमस का काला परदा।