सप्ताह की कविता
शीर्षक: माँ का नाच
रचनाकार: बोधिसत्व
वहाँ कई स्त्रियाँ थीं जो नाच रही थीं, गाते हुए वे खेत में नाच रही थीं या आंगन में यह उन्हें भी नहीं पता था एक मटमैले वितान के नीचे था चल रहा यह नाच । कोई पीली साड़ी पहने थी कोई धानी कोई गुलाबी, कोई जोगन-सी सब नाचते हुए मदद कर रही थीं एक-दूसरे की थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए हट जाती थीं वे नाचने की जगह से । कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की उसने बहुत सधे ढंग से शुरू किया नाचना गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से पुराना गीत माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी जो नाच चुकी थीं वे भी अचम्भित मन ही मन नाच रही थीं माँ के साथ । मटमैले वितान के नीचे इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटी टूट चुके थे घुटने कई बार झुक चली थी कमर पर जैसे भँवर घूमता है जैसे बवंडर नाचता है वैसे नाच रही थी माँ । आज बहुत दिनों बाद उसे मिला था नाचने का मौका और वह नाच रही थी बिना रुके गा रही थी बहुत पुराना गीत गहरे सुरों में । अचानक ही हुआ माँ का गाना बन्द पर नाचना जारी रहा वह इतनी गति में थी कि परबस घूमती जा रही थी फिर गाने की जगह उठा विलाप का स्वर और फैलता चला गया उसका वितान । वह नाचती रही बिलखते हुए धरती के इस छोर से उस छोर तक समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक सब भरे से उसके नाच की धमक से सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गाना ।