सप्ताह की कविता
शीर्षक: यार दहलीज़ छू कर
रचनाकार: विजय वाते
यार दहलीज़ छू कर ना जाया करो| तुम कभी दोस्त बनकर भी आया करो| क्या ज़रूरी है सुख दुख में ही बात हो, जब कभी फोन यूँ ही लगाया करो| बीते आवारा दिन याद करके कभी, अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो| वक्त की रेत मुठ्ठी में रुकती नहीं, इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो| हमने गुमटी पर कल चाय पी थी "विजय" तुम भी आकर के मज़मे लगाया करो|