ज़िंदगी के
नाद पर
बजता हुआ
अनुनाद है ;
कविता कहाँ,
अनुवाद है!
बाँसवन में
गूँजती है
बाँसुरी की धुन,
औ’ प्रमदवन में
खनकती
झाँझरें रुनझुन;
राधिका बनकर कभी मन
छेड़ता है तान,
फिर कभी बन राम
करता
जानकी संधान;
नयन
नयनों से करें जब
मौन संभाषण,
या कि मानस वीथिका पर
गुप्त संप्रेषण;
जबकि कालिंदी किनारे
कृष्ण मेघों से डरे,
राम घन की दामिनी में
स्मरण सीता का करे;
जान लो तब
यह हृदय का
हृदय से
संवाद है!
जब कभी थक कर
किसी ने
फेर ली आँखें,
जब कभी बोझिल हुई हैं
भींजकर पाँखें;
जबकि सारे पात
पतझर
की अमानत हो गए,
झर गए सब पुष्प
असमय
हो गईं निर्वस्त्र शाखें;
साथ सोई छाँह को भी
छोड़कर छल से
घोर वन में
या भवन में,
प्राण
नल औ’ बुद्ध
बनने के लिए
जब शून्य ताके,
जब हृदय
गलकर, पिघलकर,
आँसुओं के मोतियों की
आब बन झाँके;
काव्य का क्षण
वह
युगों की पीर है,
अवसाद है!
हादसों पर हादसे
जब भूमि पर घटते,
देख शोषण दीन जन का
घोर घन फटते;
मेरुदंडों की सिधाई की सज़ा में
होंठ सिल जाते जभी
या
शीश कटते,
या कि भींतों में
चिने जाते
कभी निर्भीक बच्चे;
बींध देतीं सूलियाँ जब
प्रेम की
हर एक नस,
जब पिलाया जाय
सच के
पक्षधर को विष;
भीड़ हो दुःशासनों की -
कीचकों की-
जयद्रथों की -
तब चले जो चक्र बनकर
शंख बन गूँजे-
वही
प्रतिवाद है!