Last modified on 2 मई 2009, at 00:57

शोलों से भरी हुई शब्दों की झोली हो / ऋषभ देव शर्मा

चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:57, 2 मई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा |संग्रह=तेवरी / ऋषभ देव शर्मा }} <Poem>श...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शोलों से भरी हुई शब्दों की झोली हो
यह समय समर का है, बम-बम की बोली हो

कुर्सी के होंठों पर जनता का लोहू है
माथे पर चाहे ही चंदन हो, रोली हो

संसदी बिटौरे में वोटों के उपले हैं
जाने कब आग लगे ,जाने कब होली हो

कुर्ते का, टोपी का कोई विश्वास नहीं
क्या पता कि वर्दी (खादी) में ,चोरों की टोली हो

फूलों के कंधों पर बंदूकें लटका दो
शायद माली पर भी खंजर या गोली हो