कवि: प्रभाकर माचवे
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1
सन्ध्या की उदास छायाएँ
- पीपल का यह सघन बसेरा
लौट रहा खग-कुल आकुल-मन
- कोलाहल मय प्रति कोटर-वन
सुदूर एकाकी तारक ज्यों
- गीत अकेला सा यह मेरा...
2
भूरे नभ में रात उतरती
- शिशिर-साँझ की धुँधली वेला
पीपल का विराट श्यामन वपु
- खडा हुआ कंकाल अकेला
एक चील का क्षीण घोंसला
- क्षीण, तीज की पीत शशिकला
अटके हैं ज्यों जीर्ण देह में
- बचा मोह का तंतु विषैला ।
3
मधु-ऋतु की सकाल अरुणाली
- उसी एक पीपल की झाँकी
पुन: पनप कर हरी कोंपलों ने
- विवसन शाखें भी ढाँकी
फिर से आ बसते हैं पाखी
- जग में लहरी नूतनता की
पर मैं वैसा ही बाकी हूँ
- वैसी कड़ियाँ एकाकी ।