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धीवरगीत-4 / राधावल्लभ त्रिपाठी

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सीमाएँ नहीं होतीं सागर में
सीमान्त बन सकती है उस पर
केवल एक नौका।

जीवन भर सेतु खोजता है आदमी
जीवन ही हो जाता है समाप्त बुलबुले की तरह
सेतु कहाँ होते हैं सागर में
सेतु जो बन सकती है उस पर
केवल एक नौका

किसके समय का करता है ध्यान
किसके लिए होता है सावधान
सागर तो उच्छलित होता
लगातार तोड़ता तटबंध
बांध कहाँ होते हैं सागर में
बांध सकती है उसे
केवल एक नौका

कौन मथ सकता है अब क्षीर सागर
कौन ला सकता है सुमेरु और
कौन वासुकि को छू सकता है
मंथन नहीं हो सकता सागर का
मथती है उसको
केवल एक नौका

उफनती लहरों की रेखाएँ निगलती रहती हैं सब कुछ
कौन खींच सकता है सागर के जल पर
एक रेखा
रेखाएँ कहाँ होती हैं सागर में
रचती है उस पर रेखा
केवल एक नौका।