ग़ज़ल
लू के मौसम में बहारों की हवा माँगते हैं
हम कफ़े़-दस्ते-ख़िज़ाँ पर भी हिना माँगते हैं
हमनशीं सादादिली-हाए-तमन्ना<ref>इच्छा की सरलताएँ</ref> मत पूछ
बेवफ़ाओं से वफ़ाओं का सिला माँगते हैं
काश कर लेते कभी का’बःए-दिल का भी तवाफ़
वो जो पत्थर के मकानों से खु़दा माँगते हैं
जिसमें हो सत्वते-शाहीन की पर्वाज़ का रंग
लबे-शाइर से वो बुलबुल की नवा माँगते हैं
ताकि दुनिया पे ख़ुले उनका फ़रेबे-इंसाफ़
बेख़ता होके ख़ताओं की सज़ा माँगते हैं
तीरगी जितनी बढे़ हुस्न हो अफ़ज़ूँ तेरा
कहकशाँ माँग में, माथे पे ज़िया माँगते हैं
यह है वारफ़्तगिए-शौक़<ref>प्रेम की बेसुधी</ref> का आलम ‘सरदार’
बारिशे-संग<ref>पत्थरों की बारिश</ref> है और बादे-सबा माँगते हैं
शब्दार्थ
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