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हमारा गाँव / प्रेमचन्द गांधी

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पहाड़ की तलहटी में बसा था गाँव
हम नहीं बस सकते थे गाँव के बीच
इसलिए हमें वहाँ बसाया गया
जहाँ गाँव को सबसे ज़्यादा ख़तरा था

मसलन वहीं से जाता था गाँव और पहाड़ का पानी
नीचे तालाब में
वहीं से था रास्ता
जंगली जानवरों के आने-जाने का
और दरअसल हमारे घरों के बाद कोई घर नहीं था
बारिश में पहाड़ का पानी
हमारे घरों पर कहर बरपाता
गाँव का पानी हमारे रास्ते रोक देता
और तालाब तो ख़तरे की घंटी था ही
हर बारिश हमें कुछ और विपन्न कर जाती
हर साल हमारे कुछ बच्चे और मवेशी
जंगली जानवर उठा ले जाते
और बंदरों ने तो हम पर कभी दया नहीं की

हम क्षत्रिय नहीं थे लेकिन
पीढ़ियों तक लड़ते रहे गाँव की ख़ातिर
उस गाँव की ख़ातिर
जहाँ हमारे लिए कुँए के पास जाना भी वर्जित था
मंदिर को भी हम फ़ासले से ही धोक पाते थे
वह भी दरवाज़ा बंद होने के बाद

हमारा और गाँव के मवेशियों का एक ही जल-स्रोत था
गाँव के मवेशी भी हम नहीं छू सकते थे
उनके मरने से पहले

यूँ गाँव-भर के खेतों में
उम्र भर खटती रहीं हमारी पीढ़ियाँ
यूँ खटते-खटते ही आ गई आज़ादी
हमारे बुज़ुर्गों को आज तक पता नहीं आज़ादी का