Last modified on 7 जून 2009, at 14:55

प्रीत के वट-वृक्ष / कविता वाचक्नवी

चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:55, 7 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''प्रीत के वट-वृक्ष!''' फूल बर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रीत के वट-वृक्ष!


फूल बरसे थे नहीं
औ’ भीड़ ने मंगल न गाए
ढोलकों की थाप
मेहंदी या महावर
हार, गजरे, चूड़ियाँ
सिंदूर, कुमकुम
था कहीं कुछ भी नहीं,
कुछ छूटने का भय नहीं।

गगन ने मोती दिए थे
लहलहाती ओढ़नी दी थी धरा ने
और माटी ने महावर पाँव में भर-भर दिया था
सूर्य-किरणें अग्निसाक्षी हो गई थीं
नाद अनहद गूँजता
अंतःकरण में सर्वदा निःशेष।

दूब ने परिणय किया वट-वृक्ष से
बँध-बँध स्वयं ही,
आप वट ने बढ़, भुजाओं से उसे
लिपटा लिया था।
घिर हवा के ताप में, जल, दूब सूखी ;
प्रीत के वट-वृक्ष!
अब तुम क्या करोगे?