दुःख / कविता वाचक्नवी

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दुःख


सर्प - सा रेंगता है दुःख।
अग्निसंभव सर्प कोई
फूत्कारता उठाए फन
कभी रुकता
और सरक जाता है
सरकता जाता है
मन की मिट्टी में।
लकीरें देख-देख
खोजा बहुत करती हूँ
जाने किधर-उधर
कौन-सी बाँबी में दुबका
न जाने,
किस बरसाती मौसम में
फिर आ जाए बाहर
क्या जानूँ?....

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