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डर / कविता वाचक्नवी

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डर

सुख पकड़
मुट्ठी बाँधी जब-जब
सरक जाते
कण-कण
उँगलियों के फ़ासलों के बीच से।
जाने कैसे
क्यों
कब
कहाँ
हथेली में
कुछ आ लगा।
मुट्ठी कसी....झट।
चमक दीखी
उँगलियों की चौड़ी दरारों से।

क्या है?
सैकत?
उजाला?
किरण?
मुट्ठी खोल देखूँ?
नहींऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ
कहीं जुगनू हुआ, तो ऽ ऽ?