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मा निषाद / कविता वाचक्नवी

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मा निषाद....


और उस रात,
और उस रात के बाद,
फिर उसके भी बाद,
जाने कितनी रातें
जाने कितनी नींदें
जाने कितने स्वप्न
चीखों से तोड़े हमने।

एक उलटा लटका चमगादड़
छत के कुंडे में
हर बार दीखता
हर जाग में
हर स्वप्न में
हर रात में
और
मैंने
नोंच दिए क्रौंच सभी
सपनों के।
आँख खुली,
पंख
सब ओर छितरे थे।