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बदली / कविता वाचक्नवी

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बदली


आज फिर....?
लो, फिर आज
पगली बदली
रोई है आँगन में
बिलख-बिलख
बार-बार
भीगी मिट्टी में गाल रगड़
लस्त-पस्त छितरे बालों से
हथेलियों पर भाल मसल।
कीचड़ के दाग हैं
तड़पते नखों में,
मुट्ठी में बिजलियों की जलन
और अपनी चीत्कार से
कड़कडा़ कर
भाल पटक
सीने में उमड़ी
घोर घटा श्यामल धुँआरी....।
चुपना न चाहता जी
चाहती है मेटना निज
तड़पती और बरसती है
वह विवश
सिसक-सिसक
पत्थरों पर---।