नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ॥ 201 ॥
रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥ 202 ॥
रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ॥ 203 ॥
रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥ 204 ॥
रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥ 205 ॥
रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान ।
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥ 206 ॥
राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥ 207 ॥
रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि ॥ 208 ॥
सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय ।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥ 209 ॥
रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की थाक ।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक ॥ 210 ॥
रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥ 211 ॥
रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ॥ 212 ॥
रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ॥ 213 ॥
रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥ 214 ॥
रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय ।
बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥ 215 ॥
लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥ 216 ॥
रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥ 217 ॥
रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥ 218 ॥
रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥ 219 ॥
रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग ।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥ 220 ॥
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥ 221 ॥
रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥ 222 ॥
रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
जब नीकै दिन आइहैं, बनत न लगिहैं बेर ॥ 223 ॥
रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि ।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि ॥ 224 ॥
रहिमन को कोउ का करै, ज्वारी चोर लबार ।
जो पत राखन हार, माखन चाखन हार ॥ 225 ॥
रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जांहि ।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ॥ 226 ॥
रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस ।
भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस ॥ 227 ॥
रहिमन वहां न जाइए, जहां कपट को हेत ।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥ 228 ॥
रहिमन रिस सहि तजत नहिं, बड़े प्रीति की पौरि ।
मूकन भारत आवई, नींद बिचारी दौरि ॥ 229 ॥
रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति ।
काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीरि ॥ 230 ॥
रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोउ मरि जात ॥ 231 ॥
रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन ।
जाय दसानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥ 232 ॥
रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी भए न ऊबरैं, मोती मानुष चून ॥ 233 ॥
रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छांड़त साज ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ॥ 234 ॥
रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि ॥ 235 ॥
पांच रूप पांडव भए, रथ बाहक नलराज ।
दुरदिन परे रहीम कहि, बड़े किए घटि काज ॥ 236 ॥
समय परे ओछे वचन, सबके सहै रहीम ।
सभा दुसासन पट गहै, गदा लिए रहे भीम ॥ 237 ॥
रहिमन जा डर निसि पैर, ता दिन डर सब कोय ।
पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय ॥ 238 ॥
रहिमन रहिला की भले, जो परसै चितलाय ।
परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय ॥ 239 ॥
रहिमन यह तन सूप है, लीजै जगत पछोर ।
हलुकन को उड़ि जान है, गुरुए राखि बटोर ॥ 240 ॥
रहिमन गली है साकरी, दूजो ना ठहराहिं ।
आपु अहै तो हरि नहिं, हरि तो आपुन नाहिं ॥ 241 ॥
स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि ।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ पथ कूबर छांहि ॥ 242 ॥
संपति भरम गंवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहुं मांहि ॥ 243 ॥
सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं ॥ 244 ॥
स्वासह तुरिय जो उच्चरै, तिय है निश्चल चित्त ।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त ॥ 245 ॥
साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान ।
रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान ॥ 246 ॥
संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत ।
दीन बन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेत ॥ 247 ॥
ससि की शीतल चांदनी, सुन्दर सबहिं सुहाय ।
लगे चोर चित में लटी, घटि रहीम मन आय ॥ 248 ॥
सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक ।
रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥ 249 ॥
ससि सुकेस साहस सलिल, मान सनेह रहीम ।
बढ़त बड़त बढ़ि जात है, घटत घटत घटि सीम ॥ 250 ॥
यह न रहीम सराहिए, लेन देन की प्रीति ।
प्रानन बाजी राखिए, हार होय कै जीति ॥ 251 ॥
ये रहीम दर दर फिरहिं, मांगि मधुकरी खाहिं ।
यारो यारी छोड़िए, वे रहीम अब नाहिं ॥ 252 ॥
यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नाय ॥ 253 ॥
रजपूती चांवर भरी, जो कदाच घटि जाय ।
कै रहीम मरिबो भलो, कै स्वदेस तजि जाय ॥ 254 ॥
यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत ।
ज्यों बड़री अंखियां निरखि अंखियन को सुख होत ॥ 255 ॥
हित रहीम इतनैं करैं, जाकी जिती बिसात ।
नहिं यह रहै न व रहे, रहै कहन को बात ॥ 256 ॥
सबको सब कोऊ करैं, कै सलाम कै राम ।
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम ॥ 257 ॥
रौल बिगाड़े राज नैं, मौल बिगाड़े माल ।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल ॥ 258 ॥
रहिमन कहत स्वपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ ।
रीते अनरीतैं करैं, भरै बिगारैं दीठ ॥ 259 ॥
होत कृपा जो बड़ेन की, सो कदापि घट जाय ।
तो रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय ॥ 260 ॥
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बाटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग ॥ 261 ॥
होय न जाकी छांह ढिग, फल रहीम अति दूर ।
बढ़िहू सो बिन काज की, तैसे तार खजूर ॥ 262 ॥
हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर ।
जग डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर ॥ 263 ॥
अनकिन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय ।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ॥ 264 ॥
बिधना यह जिय जानिकै, सेसहि दिए न कान ।
धरा मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान ॥ 265 ॥
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड ।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड ॥ 266 ॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अंधेरो होय ॥ 267 ॥
चिंता बुद्धि परखिए, टोटे परख त्रियाहि ।
सगे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनो किआहि ॥ 268 ॥
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह ।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह ॥ 269 ॥
जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय ।
ताको बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय ॥ 270 ॥
खैंचि चढ़नि ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति ।
आजकाल मोहन गही, बसंदिया की रीति ॥ 271 ॥
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम ।
काकी महिमा नहीं घटी, पर घर गए रहीम ॥ 272 ॥
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गए, चरन कमल की ओट ॥ 273 ॥
कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
जैसी संगती बैठिए, तैसोई फल दीन ॥ 274 ॥
पिय वियोग ते दुसह दुख, सुने दुख ते अन्त ।
होत अन्त ते फल मिलन, तोरि सिधाए कन्त ॥ 275 ॥
आदि रूप की परम दुति, घट घट रही समाई ।
लघु मति ते मो मन रमन, अस्तुति कही न जाई ॥ 276 ॥
नैन तृप्ति कछु होत है, निरखि जगत की भांति ।
जाहि ताहि में पाइयत, आदि रूप की कांति ॥ 277 ॥
उत्तम जाती ब्राह्ममी, देखत चित्त लुभाय ।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय ॥ 278 ॥
परजापति परमेशवरी, गंगा रूप समान ।
जाके अंग तरंग में, करत नैन अस्नान ॥ 279 ॥
रूप रंग रति राज में, खत रानी इतरान ।
मानो रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान ॥ 280 ॥
परस पाहन की मनो, धरे पूतरी अंग ।
क्यों न होय कंचन बहू, जे बिलसै तिहि संग ॥ 281 ॥
कबहुं देखावै जौहरनि, हंसि हंसि मानकलाल ।
कबहुं चखते च्वै परै, टूटि मुकुत की माल ॥ 282 ॥
जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाई ।
पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई ॥ 283 ॥
कैथिनि कथन न पारई, प्रेम कथा मुख बैन ।
छाती ही पाती मनों, लिखै मैन की सैन ॥ 284 ॥
बरूनि बार लेखिनि करै, मसि का जरि भरि लेई ।
प्रेमाक्षर लिखि नैन ते, पिये बांचन को देई ॥ 285 ॥
पलक म टारै बदन ते, पलक न मारै मित्र ।
नेकु न चित ते ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र ॥ 286 ॥
सोभित मुख ऊपर धरै, सदा सुरत मैदान ।
छूरी लरै बंदूकची, भौहें रूप कमान ॥ 287 ॥
कामेश्वर नैननि धरै, करत प्रेम की केलि ।
नैन माहिं चोवा मटे, छोरन माहि फुलेलि ॥ 288 ॥
करै न काहू की सका, सकिकन जोबन रूप ।
सदा सरम जल ते मरी, रहे चिबुक कै रूप ॥ 289 ॥
करै गुमान कमागरी, भौंह कमान चढ़ाइ ।
पिय कर महि जब खैंचई, फिर कमान सी जाइ ॥ 290 ॥
सीस चूंदरी निरख मन, परत प्रेम के जार ।
प्रान इजारै लेत है, वाकी लाल इजार ॥ 291 ॥
जोगनि जोग न जानई, परै प्रेम रस माहिं ।
डोलत मुख ऊपर लिए, प्रेम जटा की छांहि ॥ 292 ॥
भाटिन भटकी प्रेम की, हर की रहै न गेह ।
जोवन पर लटकी फिरै, जोरत वरह सनेह ॥ 293 ॥
भटियारी उर मुंह करै, प्रेम पथिक की ठौर ।
धौस दिखावै और की, रात दिखावै और ॥ 294 ॥
पाटम्बर पटइन पहिरि, सेंदुर भरे ललाट ।
बिरही नेकु न छाड़ही, वा पटवा की हाट ॥ 295 ॥
सजल नैन वाके निरखि, चलत प्रेम सर फूट ।
लोक लाज उर धाकते, जात समक सी छूट ॥ 296 ॥
राज करत रजपूतनी, देस रूप को दीप ।
कर घूंघट पर ओट कै, आवत पियहि समिप ॥ 297 ॥
हियरा भरै तबाखिनी, हाथ न लावन देत ।
सुखा नेक चटवाइ कै, हड़ी झाटि सब देत ॥ 298 ॥
हाथ लिए हत्या फिरे, जोबन गरब हुलास ।
धरै कसाइन रैन दिन, बिरही रकत पिपास ॥ 299 ॥
गाहक सो हंसि बिहंसि कै, करत बोल अरु कौल ।
पहिले आपुन मोल कहि, कहत दही को मोल ॥ 300 ॥