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विसंगतियाँ / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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आज भी संदर्भ हैं वे ही,

आज भी वे ही परिस्थितियाँ

आज भी बन्दीगृहों में हम,

जी रहे सौ-सौ विसंगतियाँ !



उड़ चला आकाश में पंछी,

बोझ लेकर पंख पर भारी

बेरुखी विपरीत धारों में,

डगमगाती नाव पथहारी

हैं हवाओं में गरल के कण,

घिर रही हैं मेघमालाएँ

है तटों पर शांति मरघट की,

धार में युद्धक विषमताएँ

घोंसले में लौटना मुश्किल,

पार जाना भी नहीं संभव

मंज़िलों से दूर हैं राहें,

सागरों से दूर हैं नदियाँ !



सिंह से तो बच गया मृगपर,

जाल में उलझा शिकारी के

आरती का दीप तो जलता,

काँपते हैं कर पुजारी के

मुक्त उपवन में उगे बिरवे,

क्यारियों की माँग करते हैं

एक माला में गुँथे मनके,

द्वैत के भ्रम में बिखरते हैं

मुक्ति का सूरज उगा छत पर,

दास्य का तम-तोम आँगन में

सर्व भास्वर कल्पनाओं की,

हैं कहाँ साकार परिणतियाँ !