Last modified on 27 जून 2009, at 22:22

गर्व / कविता वाचक्नवी

चंद्र मौलेश्वर (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:22, 27 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता वाचक्नवी }} <poem> '''गर्व''' मैंने पत्थरों को सह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


गर्व


मैंने पत्थरों को सहलाना चाहा,
वे नहीं हिले अपने स्थान से
संतोष कर लिया मैंने
उनके गर्व में साझीदार होकर
कि अडिगता अच्छा गुण है

उन पर गीत लिखे,
सृष्टि के आदि से
शिला की छाँह सौंपते
महाप्रलय में भी मस्तक उठाए,
अनतभाल
गिरि शिखरों के उन्नत शीशों पर;
वे तब भी अपनी चिर उपस्थिति की कथा
सुनाते-सुनते रहे।
फिर-फिर हर प्रलय में
डूबी जाती पृथ्वी का सीना
कैसे सम्हाल रखता होगा
इतना मद
इतना गर्व?