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अभंग-3 / दिलीप चित्रे

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बोल ही नहीं पाए
जकड़ गई जिह्वा
वहीं-की-वहीं
थाम ली ममता
सूखती जाती लार
अब अर्थ नहीं छूटता

दीन-हीन चेहरा
अस्त होती आँखें
सिकुड़ा हुआ बैठा
मिली जो जगह
जानते ही जाना
अब अर्थ नहीं छूटता

कसकर गया बाँधा
भीतर तू ही ठसा
दोनों किनारे समानता
शिथिल
टूटा अपने ही भीतर
अब अर्थ नहीं छूटता

यह जन्म मर्म
यही, घाव यही
मर्म पर यही धर्म
सारे घाव तटस्थ
उफ़नती है चन्द्रभागा
अब अर्थ नहीं छूटता

दूर से पड़ता सुनाई
झाँझ-सा तुका मुझे
भीतरी चोट जैसा
लग गया
विह्वलता आनन्द की
अब अर्थ नहीं छूटता।


अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले