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अभंग-4 / दिलीप चित्रे

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भड़क रहे प्राण
शान्ति से लगाओ दिया
सर्वज्ञ बन अर्पित करो
यहाँ सेवा

सन्देह और भ्रम
स्वार्थ और लालच
पहनकर दुश्मन अब नाच रहे
एकमात्र समारोह में
पंगत पाप-पुण्य की
सिर्फ़ परोसने वाले की
ज़ुबान बन्द

यह ब्याह अथवा गृहयुद्ध
यह उत्सव अथवा डकैती
यह भीड़ अथवा समाज
हमीं जानें।

अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले