इश्क ही सअ़ई मेरी, इश्क ही हासिल मेरा
यही मंज़िल है, यही जाद-ए-मंज़िल मेरा।
दैर-ओ-हरम भी कूचए-जानाँ में आए थे।
पर शुक्र है कि बढ़ गए दामन बचा के हम॥
नियाज़े-इश्क़ को समझा है क्या ऐ वाइज़े-नादाँ।
हज़ारों बन गए काबे, जहाँ मैंने जबी रख दी॥
क्या दर्दे-हिज्र और यह क्या लज़्ज़ते-विसाल।
उससे भी कुछ बुलंद मिली है नज़र मुझे॥
अब न यह मेरी ज़ात है, अब न यह कायनात है।
मैंने नवाये-इश्क को साज़ से यूँ मिला दिया॥
मरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥