Last modified on 24 जुलाई 2009, at 11:48

प्रतीत्य समुत्पाद / प्रियंकर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:48, 24 जुलाई 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रियंकर |संग्रह= }} <Poem> भाषा चाहिए, संस्कृति नहीं ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भाषा चाहिए, संस्कृति नहीं
पूंजी चाहिए, संस्कृति नहीं
बहुराष्ट्रीय बाज़ार चाहिए, संस्कृति नहीं
भूमंडलीकृत व्यापार चाहिए, संस्कृति नहीं

पैंट के साथ कमीज़ चाहिए
कमीज़ के साथ शमीज़
आकाश को मापने का हौसला चाहिए
इस महामंडी में मिल सके तो
चाहिए पृथ्वी पर मनुष्य की तरह
रहने की थोड़ी-बहुत तमीज़

सकल भूमंडल की विचार-यात्रा के लिए
चाहिए एक यान
– हीन या महान
प्रतीत्य समुत्पाद की समकालीन व्याख्या के लिए
एक अदद बुद्ध चाहिए

करघे पर बैठा कबीर व्यस्त हो
तो शायद कुछ काम आ सके
चरखेवाला काठियावाड़ी मोहनदास
आभासी यथार्थ की दुनिया में
बहुत मुश्किल है समझना प्रतीत्य समुत्पाद ।