Last modified on 16 सितम्बर 2006, at 23:51

बांसुरी / किशोर काबरा

पूर्णिमा वर्मन (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 23:51, 16 सितम्बर 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लेखक: किशोर काबरा

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

टूट जाएगी तुम्हारी सांस री!

ओंठ पर रख लो हमारी बांसुरी।

सात स्वर नव द्वार पर पहरा लगाए,

रात काजल आंख में गहरा लगाए।

तर्जनी की बांह को धीरे पकड़ना,

पोर में उसके चुभी है फांस री!

ओंठ पर...


दोपहर तक स्वयं जलते पांव जाकर,

लौट आई धूप सबके गांव जाकर।

अब कन्हैया का पता कैसे लगेगा?

कंस जैसे उग रहे है कांस री!

ओंठ पर...


बह रहा सावन इधर भादव उधर से,

कुंज में आएं भला माधव किधर से?

घट नहीं पनघट नहीं, घूंघट नहीं है,

आंसुओं से जल गए हैं बांस री!