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किसके भरोसे / किशोर काबरा

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कवि: किशोर काबरा

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ रहबरो को रोज कोसे जा रहे है।

आप फिर किसके भरोसे जा रहे है?


जा रहे है भीड़ के पीछे निरन्तर

किन्तु अपना मन मसोसे जा रहे है।


जो अभागे कर्म करते ही नही, वे -

भाग्य को दिन रात कोसे जा रहे है।


सीप के मोती सभी प्यासे पड़े है,

क्यारियो मे शख पोसे जा रहे है।


कलम करते जा रहे है सर हमारे,

पगड़ियो मे पख खोसे जा रहे है।


इस तरफ बच्चे तरसते रोटियों को,

उस तरफ घर मे समोसे जा रहे है।


पीढ़िया हम से गजाला चाहती है

और हम गजले परोसे जा रहे है।