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बिरजू भैया / किशोर काबरा

कवि: किशोर काबरा

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ईश्वर के अवतार हुए हैं, बिरजू भैया,

पर कितने लाचार हुए हैं, बिरजू भैया।


होरी के सिरहाने कोरी रात बिताई,

फिर चाहे बीमार हुए हैं, बिरजू भैया।


धनिया की विधवा लड़की का ब्याह कराने,

खेत बेचकर ख्वार हुए हैं, बिरजू भैया।


सुख-दु:ख में सब लोगों के हमराही बनकर,

एक बड़ा परिवार हुए हैं, बिरजू भैया।


ब्राह्मण-क्षत्रि-वैश्य-शूद्र से ऊपर उठकर,

मानव के आकार हुए हैं, बिरजू भैया।


मां-बहनें तो ठीक, गाय-बछिया रोए तो

करूणा की जलधार हुए हैं, बिरजू भैया।


होली और दिवाली हो या ईद-मुहर्रम,

घर-घर के त्यौहार हुए हैं, बिरजू भैया।


बालक, बूढ़े ओ' जवान के दिल में सोई,

जीवन की ललकार हुए हैं, बिरजू भैया।


पर चुनाव में खड़े हुए जब इसी गांव से,

कुछ बदले आसार हुए हैं, बिरजू भैया।


जब चुनाव में जीत गए तो काम भूलकर,

केवल जय-जयकार हुए हैं, बिरजू भैया।


अब सुनते हैं - दिल्ली की संसद में जाकर

मिली-जुली सरकार हुए हैं, बिरजू भैया।


सरकारी शिष्टाचारों में ऐसे डूबे,

पूरे भ्रष्टाचार हुए हैं, बिरजू भैया।


कल कविता थे, कारीगर थे ओ' किसान थे,

किन्तु आज कलदार हुए हैं, बिरजू भैया।


'सत्ता तो उपहार नहीं, उपहास हो गई'

कहने को लाचार हुए हैं, बिरजू भैया।


किन्तु कौन सुनता सत्ता के गलियारे में?

शब्द यहां बेकार हुए हैं, बिरजू भैया।