मौन उन्नत विशाल
युगों से खड़े निश्चल
निर्विकार
क्या सच में तुम्हें कुछ भी याद नहीं
न वो महुए की मीठी गंध
ना ही चकाचौंध धूप के वो नर्म मुलायम वृत्त
पत्तियों की नुकीली चुभन में बंधकर जो मन
आज भी हेरता है तुम्हें
उस सुगबुगाहट से कितने अनजान तुम
फिर भी
कितनी-कितनी स्मृतियों के साक्षी
नभ के कन्धों पर टिके खड़े तुम
ओ विशाल
तुम्हें शत्-शत् प्रणाम