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बड़े सवेरे / इला कुमार

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रुपहले ओस की मोतियों में,

झलकती है आसमान की लाली,

मधुर चूड़ियों की खनखनाहट भरी

स्वप्नों के बोझ से लदी रात अब जा रही है


डाल पर बैठी बुलबुल जोर से हुंकारा भारती है

'ऐSS देखो!'

देती दिलासा वह क्रोड़ में दुबके खग शिशुओं को


'लो सुबह, अब आ रही है!'

या कि स्वीकारती शुभ प्रभात को

'आओ! स्वागत लाल सूर्य तुम्हारा स्वागत!'


वह गा रही है हेरती न जाने किसे टेरती

पुकारती समस्त विजन को


दुलारती हवाओं के संग

शांत झरोके रूक-रूक कर सहलाते हैं

चांदी सी चमकीली झील के साए को

एक पथिक छोड़ते हुए पुरानी लीक को

मुड़कर देखता है क्या पीछे सवेरा आ रहा है?


कैसी भी गर्म उमस भरी थी शाम

फिर कितनी ठंढ़ी बोछारों में भीगी रात


विदा!


पर विदा लेगी वह अंतिम प्रहार में

प्रभात के आने पर क्यों कर थमेगी वह

हमारे रोके न रूकेगी