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सदस्य:Mridula

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एकांत के प्रतिबिम्ब मैं,

डूबता-उतरता हुआ मेरा मन,

अन्तरंग विथियो में

परिमार्जित होते हुए

मेरे सुख-दुःख,

नीले-नीले सपनो को

सजाते-संवारते हुए

मेरी पलकों के पंख

और शब्दों के

कोलाहल से भरी हुई,

मेरी चुप्पी ने

एक दिन,

अपना सारा कुछ

बाँट दिया

उंगलियों को,

उंगलियों ने धीरे-धीरे

सब कुछ निकलकर

डायरी के पन्नो में,

रख दिया,

अब बांटने जैसा

कुछ भी नहीं हैं

मेरे पास,

तुम्हें दे सकूँ ऐसा

कुछ भी नहीं हैं

मेरे पास.