दिन बीते रीते-रीते इन सूनी राहों पे
मिला न कोई राही बना न कोई साथी वन सूखे चाहों के
याद न कोई आता न मन को कोई भाता घेरे खाली हैं बाहों के
कलप रहा है तन जैसे भू-अगन दिन आए फिर कराहों के
(रचनाकाल : 2005)
</Poem>
दिन बीते रीते-रीते इन सूनी राहों पे
मिला न कोई राही बना न कोई साथी वन सूखे चाहों के
याद न कोई आता न मन को कोई भाता घेरे खाली हैं बाहों के
कलप रहा है तन जैसे भू-अगन दिन आए फिर कराहों के
(रचनाकाल : 2005)
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