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दांपत्य / सरोजिनी साहू


हम दोनों बैठे थे चुपचाप
दिन बीता, साँझ हुई
साँझ बीती, रात हुई
पंछी लौट चले अपने घोंसले में
चाँद निकलने वाला था,
हमें मालूम न था
शुक्लपक्ष था या कृष्णपक्ष था .

हम दोनों बैठे थे चुपचाप
चारों तरफ सरीसृप,कीडे-मकोडे घेरे हुए थे हमें
लता-गुल्मों की तरह,
उस ओर हमारी नज़र न थी
अँधेरा गहराता गया,
और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था.

फिर भी दोनों बैठे रहे, चुपचाप
क्योंकि एक की साँस दूसरी की पहचान थी.
हम बैठे थे
ओंस भिगाती गई,
कुहासा ढंकता गया,
पावों से हम जमते गए,
बर्फ बनने के पहले देखा,
किसी ने मेरी हथेली पर अपना हाथ रखा.

(अनुवाद: जगदीश महान्ति)

(प्रस्तुत कविता का अनुवाद साहित्य अमृत के मई २००८ अंक में प्रकाशित)