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पहाड़ / सरोज परमार

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पहली बार देखा पहाड़
लदा हुआ सतरंगों से
उठती-गिरती तरंगों से
मोहता,धड़कता-सा
चहक-चहक उचकता-सा
धरती की छाती पर पसरा
पिघल रहा था पहाड़।
उगल रहा था झरने
बहता नदियों में प्यार
कनखियो से देता आमंत्रण
बहुत अपना-सा लगा था पहाड़।
बरसों बाद देखा पहाड़
कंक्रीट का किल्टा
पीठ पर लादे
कटा-फ़टा कुछ थका-थका
खुरदरा-सा कुछ भुरहुरा सा
निचुड़ा-सा लगा पहाड़।
तिलस्म को साधता-सा
कुल्हाड़ी से रिश्ता गाँठता सा
सरल नहीं रह गया था पहाड़्
कुटिल भी नहीं हो पाया था पहाड़ ।