कवि: अशोक वाजपेयी
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चंपे के फूल मुंह उठाए
देखते हैं सूर्य की ओर¸
तार पर बैठी एक चिड़िया
ताकती है सूर्योदय¸
जाड़े में सरदी से कुकुड़ता
एक बच्चा उम्मीद से
बैठता है धूप में।
अपनी धुरी पर स्थिर और अचल
सूर्य
देखता है फूल को¸ चिड़िया को¸
बच्चे को
अपने ही प्रताप से
पकती फ़सलों को
सूर्य को नहीं सूझ पड़ती
वनस्पतियां¸ लोग और
रंभाते–जमुहाते पशुओं की कतारें
सूर्य ऊपर की ओर देखता है
शून्य में¸ अन्यमनस्क
सूर्य के धधकते अंतस में
बैठा है अंधेरा
सूर्य को दिखाई नहीं देता
धूप न सूर्य की नन्हीं उंगलियां हैं
न आंखें
धूप सिर्फ़ दृष्टि है
सब पर बिखरी पर कुछ भी न देख पाती
एक नेत्रहीन की।