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अंत में / केशव

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कभी-कभार
मिलने वाले क्षणों को
गिरवीं रखना
रोज़मर्रा की ज़रूरतों के बदले
कितना मुश्किल है
ज़िन्दगी की दोपहर में
बिना बैसाखी के चलना

सूख जाये जब धूप
चमड़े की तरह
फिर दिन दिन गिनना
वक्त के हाशिये पर
खींचकर
तमाम सफर का नक्शा
यादों की बर्फ में
गलना
बच जाती है अंत में
किसी घिसे हुए सिक्के की तरह
ज़िन्दगी
और उसे अँधेरे में चलाने की
चालाकी