किले खड़े रहते हैं सदियों
आदमी नहीं रहते
शायद इसलिए कि किले आदमी नहीं होते।
खड़ा है काँगड़ा किला उसी परम्परा में
कभी किला पहाड़ लगता है
कभी पहाड़ किला
बाणगंगा की सीमा से सीधा ऊपर
पीछे दीवार धौलाधार।
प्राचीरों के झरोखे से दिखते
नीले आकाश के टुकड़े
उन्हें पोंछते उजले बादल
और हवा को सन्न से चीरते
हरे तोतों के झुण्ड
जिन से कभी देखा करते थे चौकन्ने सिपाही
घात लगाते हमलावरों को।
सिपाही
जिन का पेशा है लड़ाई
जान लेना या देना उसके लिए, जिससे नहीं कोई नाता।
बिना छत्त की दीवारों पर
काँगड़ा कलम के चित्र
वही ताज़ा चटक वही रंग
जैसे टूटे स्तम्भ की झाड़ी में
खिले ताज़ा फूल बसंत।
कभी फड़फड़ाती फ़ाख़्ता उड़ जाती ऊपर
कभी फुंकारता फनियर नाग
नीचे बहती बाणगंगा एकएक सहम जाती।
लोगों ने नहीं देखा महाभारत के
योद्धा सुशर्मा को
संसार चन्द को देखा है
महाराजा संसारचन्द का चेहरा
आज भी
झाँकता झरोखे से
कभी चमकता दमकता हुआ।
अभी पुख्ता हैं किले की दीवारें
हलाँकि हमलावर नहीं है
हिला नहीं पाया इन्हें 1905 का नामी भूकम्प
द्वार पर डटे हैं रखवाली करते
पुरातत्व बिभाग के कर्मचारी
जो किले में उगी घास ठेके पर बेचते हैं।
किले में कैद नहीं रहना चाहते थे संसार चन्द
किले में रहना मज़बूरी है
फिर भी रहे चार बरस
जब ज़िन्दगी रफ़्तार नहीं, ठहराव हुई
तब वे भीतर
बाहर हमलावर।
नहीं मालूम था उस समय
तुम्हारी तलवारें बनेंगी
संग्रहालय की वस्तु
जिनकी टंकार से कांपते थे
बाईस पहाड़ी राजा
यह भी नहीं था मालूम
धर्मशाला में खुलेगा
तुम्हारे नाम काँगड़ा कला संग्रहालय
और तुम्हारे हथियार बनेंगे कला वस्तु।
तुम फहराना चाहते विजय पताका
धौलाधार से लाहौर तक
पहाड़ी नदी की तरह
बहना चाहते थे दूर मैदानों तक।
तुम्हारे अपनों ने ही
जयचंद बन बुलवाए गोरखा हमलावर
जिन्होंबे लूटा पूरा पहाड़
तुम मजबूर हुए किले के भीतर
कसम ज्वालामाई की
धोखा हुआ तुम्हारे साथ।
यूँ तो राजनीति का दूसरा नाम
छल है
छल न हो तो बल से बनता इतिहास
बनती-बिग़ड्ती है सीमाएँ
किलों में पलती महत्वकाँक्षाएँ
और अंत में रह जाते प्रतीक।
इतिहास तो छिप जाता है चंद पन्नों में
गवाह खड़े रहते हैं
सदियों तक
आकाश की ओर बाँहें फैलाए
अपना अस्तित्व तलाशते।
सैनिकों की आवाज़ें गूँजती गलियारों में
कभी चांदनी रातों में
उल्लू बुदबुदाता इतिहास
कभी कोई पत्थर गिरता
और लुढ़क जाता नदी तक
कुछ कर्कश कुछ करुण आवाज़ करता हुआ।