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कुछ भी न हैफ़ कर सके हस्तीए-मुस्तआ़र में / सफ़ी लखनवी

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कुछ भी न हैफ़ कर सके हस्ती-ए-मुस्तआ़र में।
हो गई खत्म ज़िन्दगी मौत के इन्तज़ार में॥

खुलते ही आँख इश्क़ ने हुस्ने-अदा पै जान दी।
आई क़ज़ा शबाब में, देखी खिज़ाँ बहार में॥

भूले हुए ज़हेनसीब अब भी जो याद आ गए।
फ़ातिहा को आये कब जब ख़ाक नहीं मज़ार में॥