Last modified on 25 अगस्त 2009, at 22:49

पुतैये / कुमार मुकुल

कुमार मुकुल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:49, 25 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मुकुल |संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुक...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रात भीगना था ओस में

जिन चूल्‍हों को

सुबह पुतना था

मिटटी-गोबर-पानी और धूप से

पुत गये वे अपनों ही के खून से

पुतैये आये थे रात

जमात में


यूं चरमराया तो था बॉंस की चॉंचर का दरवाजा

प्रतिरोध किया था जस्‍ते के लोटे ने

ढनमनाया था जोर से

चूल्‍हे पर पडा काला तावा भी

खडका था

नीचे गिरते हुए


पर बहादुर थे पुतैये

बोलती बंद कर दी सबकी

चूल्‍हे की तरह मुँह बा दिया सबने


चूल्‍हे की राख में घुसी

सोयी थी बिल्‍ली जो

मारी गयी

पिल्‍ले भी मारे गये

सोये पुआल पर।

हिटलर चित्रकार भी था और ब्रेख्‍त उसे व्‍यंग्‍य से पुतैया यानी पोतने वाला कहते थे। यह कविता बिहार के नरसंहारों के संदर्भ में है।