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लोक कविता / सुदर्शन वशिष्ठ

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देख देख विहँसता है गद्दी
तेरे मत्थे दा बिन्दला
तेरे नक्के दा बालू
देख देख विहंसता है गद्दी

बिंदास गद्दण
मेमने सी कोमल
नरम,निरीह अबोध
स्नेहिल शर्मीली सपनीली
चंदास गद्दण
देख देख विहँसता है गद्दी।

केवल एक आवाज़--
एक आवाज़ से डरता है गद्दी
बाघ से नहीं डरता
रीछ से नहीं डरता
मीह से नहीं डरता
पाणी से नहीं डरता है


एक आवाज़--
आवाज़,मोटर की है
ट्रक की है
कार की है
सूट बूट की झंकार की है।

क्या कोई ट्रक मेमनों को रगड़ गया
कोई बाबू गद्द्ण से उलझ गया
एक आवाज़--
बजा बाजा
क्या दावत के लिए
कारों का काफिला सजा!
या आया तो नही है कहीं
लश्कर सहित शिकारी राजा!