Last modified on 9 सितम्बर 2009, at 23:09

वो आँख ज़बान हो गई है / फ़िराक़ गोरखपुरी

Amitabh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:09, 9 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह=गुले-नग़मा / फ़िराक़ ग...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वो आँख ज़बान हो गई है
हर बज़्म की जान हो गई है।

आँखें पड़ती है मयकदों की, वो आँख जवान हो गयी है।

आईना दिखा दिया ये किसने, दुनिया हैरान हो गयी है।

उस नरगिसे-नाज़ में थी जो बात, शाएर की ज़बान हो गयी है।

अब तो तेरी हर निगाहे-काफ़िर, ईमान की जान हो गयी है।

तरग़ीबे-गुनाह<ref>पाप की ओर उकसाना</ref> लहज़ह-लहज़ह,<ref>क्षण-प्रतिक्षण</ref> अब रात जवान हो गयी है।

तौफ़ीके - नज़र से मुश्किले-ज़ीस्त, कितनी आसान हो गयी है।


शब्दार्थ
<references/>