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गरमियों की शाम / बालकृष्ण राव

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<poet> आँिधयो ही आँिधयो में उड गया यह जेठ का जलता हुआ दिन, मुड गया किस आेर, कब सूरज सुबह का गदर् की दीवार के पीछे, न जाने।

क्या पता कब दिन ढला, कब शाम हो आयी नही है अब नही है एक भी पिछडा सिपाही आँिधयो की फौज का बाकी

हमारे बीच अब तो एक पत्ता भी खड़कता है न हिलता है हवा का नाम भी तो हो हमें अब आँिधयो के शोर के बदले मिली है हब्स की बेचैन खामेशी

न जाने क्या हुआ सहसा, ठिठक कर, साँस रोके रह गयी आँखे गडाये गदर् दीवार को ही देखती सी प्रकृति सारी आैर क्या देखे दिखेगा क्या </poet>