Last modified on 16 सितम्बर 2009, at 10:44

रोज़मर्रा / अश्वघोष

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:44, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अश्वघोष |संग्रह= }} <Poem> रोज़मर्रा वही इक ख़बर देखि...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रोज़मर्रा वही इक ख़बर देखिए
अब तो पत्थर हुआ काँचघर देखिए।

सड़कें चलने लगीं आदमी रुक गया
हो गया यों अपाहिज सफ़र देखिए।

सारा आकाश अब इनके सीने में है
काटकर इन परिंदों के पर देखिए।

मैं हक़ीक़त न कह दूँ कही आपसे
मुझको खाता है हरदम ये डर देखिए।

धूप आती है इनमें, न ठंडी हवा
खिड़कियाँ हो गईं बेअसर देखिए।