कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!
थककर बैठो नहीं प्रतीक्षा कर रहा कोई कहीं
हारे नहीं जब हौसले
तब कम हुये सब फासले
दूरी कहीं कोई नहीं केवल समर्पण चाहिये!
कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!
हर दर्द झूठा लग रहा सहकर मजा आता नहीं
आंसू वही आंखें वही
कुछ है गलत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिये!
कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!
राहें पुरानी पड़ गयीं आखिर मुसाफिर क्या करे!
सम्भोग से सन्यास तक
आवास से आकाश तक
भटके हुये इन्सान को कुछ और जीवन चाहिये!
कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!
कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज दें!
इस पार क्या उस पार क्या!
पतवार क्या मंझधार क्या!!
हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिये!
कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!
कैसे जियें कैसे मरें यह तो पुरानी बात है!
जो कर सकें आओ करें
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिये!
कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिये!