झुक आई फिर
मन के आँगन पर
सफेदे की टहनियां
बिछ गये फिर
वीरान पगडंडियों पर
हरसिंगार के रक्तिम पत्ते
आज फिर
बादल ने मुझे सीमित कर दिया
खिड़की से निगाह हटा
दुबक जाता हूं
अंगीठी के दहकते कोयलों में
सोचता हूँ
राख-की-परतों-सा
और कुरदता हूं
अपनी परछाईयाँ
सामने बैठी सीमा की पीली कलाईयों में
आँख चुभती सलाईयों में
स्वैटर की बुनती में
उसके चुम्बनों-थके गालों पर
ढीले-रूखे बालों
घेरती दीवारों
झुकी टहनियों
दूर फैली झाड़ियों
और
हरसिंगार रक्तिम पत्तों पर
कोयलों से उठती तम्बई छायाएं कांपती हैं
झुक आई हैं फिर
सफेदे की टहनियां
बिछ गये हैं फिर
हरसिंगार के रक्तिम पत्ते
कर दिया फिर सीमित
आज मुझे बादल ने।