Last modified on 16 सितम्बर 2009, at 17:32

जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी / अकबर इलाहाबादी

Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:32, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जान ही लेने की हिकमत<ref>विधि</ref> में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ

ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ

मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती<ref>जीवन रूपी जाल</ref> में फँसा, जुल्फ़ का सौदा<ref>आशिक</ref> न हुआ

शब्दार्थ
<references/>